Thursday, May 30, 2013

नक्सलियों ने छोड़ा, अपनों ने किया घायल

पिछले डेढ़ दशकों से नक्सलप्रभावित दक्षिण छत्तीसगढ़ से एकमात्र कांग्रेसी विधायक कवासी लखमा को अपनों ने ही घायल कर दिया। उनका पहला कसूर यह है कि वे धुर नक्सल इलाके से लगातार चुनाव जीत रहे हैं। उनका दूसरा कसूर यह है कि 25 मई को दरभा घाटी में कांग्रेस के काफिले पर हुए हमले में नक्सलियों ने उनकी जान बख्श दी। उनका तीसरा और सबसे बड़ा कसूर यह है कि वे अजीत जोगी के आदमी हैं। हमले के बाद से ही सच्चे-झूठे आरोप लगाकर उन्हें एक कायर, सेटिंगबाज तथा षडयंत्रकारी नेता के रूप में पेश किया जाता रहा है। इस बारे में खुद लखमा क्या कहते हैं...
  बड़े नेताओं से फुर्सत मिले तो कोई मुझसे भी बात करे और मेरी बात सुने और छापे। मुझे नक्सलियों ने क्यों छोड़ दिया, मैं खुद नहीं जानता। मैं सलवा जुडूम के दौरान निरीह आदिवासियों पर किए गए अत्याचार का विरोध करता रहा हूँ। जुडूम ने खुद मेरे परिवार के लोगों पर अत्याचार किये हैं। यही एकमात्र वजह हो सकती है। पर यह मेरा आकलन है। असली कारण तो नक्सली ही बता सकते हैं। काफिले में 124 लोग थे। फायरिंग में 29 मारे गए। कुछ लोगों को नक्सलियों ने ढूंढ-ढूंढ कर मार दिया। क्या यह सवाल बाकी बचे सभी लोगों से पूछा गया?
लोग कहते हैं कि मेरी नक्सलियों से सेटिंग है। मेरे चुनाव क्षेत्र में 193 पोलिंग बूथ हैं। मैं केवल 100 में ही जा पाता हूँ। मैं केवल सड़क-सड़क घूमता हूँ। कई इलाके ऐसे हैं जहां मैं बरसों से नहीं गया। जगरगुंडा गए तो मुझे 15 साल हो गए। नक्सली हमलों में मारे गए कवासी भीमा, मड़का मूंगा, कवासी माचा, कवासी मुका, मड़काम सुक्का मेरे रिश्तेदार थे। नक्सलियों ने मेरे बड़े भाई कोवासी हडका का सबकुछ लूट लिया। दूसरी बात, यदि नक्सलियों से मेरी सेटिंग है तो उन्होंने मनीष कुंजाम को क्यों छोड़ दिया? वह तो मेरा धुर विरोधी है।
लोग सवाल उठा रहे हैं कि मुझे नक्सली जमावड़े की सूचना क्यों नहीं मिली। मेरे से बड़ा सूचना नेटवर्क मेरे चाचा महेन्द्र कर्मा का था। उनका नेटवर्क पुलिस से भी बेहतर था। जब उन्हें सूचना नहीं मिली तो मुझे कैसे मिलती? वैसे भी जहां यह हमला हुआ वह न तो मेरा इलाका है, न मेरा विधानसभा क्षेत्र। वहां तो लोग शायद मुझे जानते भी नहीं हैं।
मेरा घर, मेरी गाड़ी, मेरा ट्रैक्टर सब कुछ लोन पर है। कभी कभी किस्तें भी समय पर नहीं पहुंचतीं और लोग कहते हैं कि मैं नक्सलियों को पैसे देता हूँ। कहां से लाता हूँ? मैं कमीशन नहीं खाता। पार्टनरशिप में ठेकेदारी नहीं करता। जिसके जो मन में आ रहा है, बोल रहा है।
मैं खामोश नहीं रहता। मैने नक्सलियों के खिलाफ प्रत्येक मंच पर बोला है। यह बात और है कि बड़े नेताओं के आगे मेरी बातें दब गर्इं। मैने सलवा जुडूम के अत्याचार के बारे में भी बोला है। जुडूम ने गगनपल्ली को तीन बार जला दिया। अदमपलली, गोरखा, सुपिडतोंग, रोटेगट्टा, मईता, बंडाटेटरा, अरगट्टा, मनीगोंटा आदि गांव जुडूम ने जला दिये। चार, इमली बेचने वाले आदिवासियों को घसीटकर जुडूम शिविरों में ले जाया गया।
मैं मुर्गा लड़ाने वाला
मैं स्कूल नहीं गया हूँ। मेरे को बात करने का तरीका नहीं आता। ताड़ी काटते, मुर्गा लड़ाते हुए बड़ा हुआ हूँ। बोलता हूं तो धमकाने जैसा लगता है। सीधी सपाट भाषा बोलता हूँ। गलत को गलत बोलता हूँ। अजीत जोगी मेरे नेता हैं इसलिए उनके विरोधी मेरे भी विरोधी हैं। दरभा घाटी हमले के बाद सरकार की बोलती बंद हो गई थी। रमन सरकार की हैट्रिक वाले पोस्टर फीके पड़ गए थे। ऐसे समय में लोगों ने मुझे और जोगी जी को निशाना बनाना शुरू कर दिया। सरकार को राहत मिल गई। यही सेटिंग है। पर लोग समझें तब ना....

(कवासी लखमा द्वारा हरिभूमि के विशेष संवाददाता याज्ञवल्क्य को दिए साक्षात्कार के आधार पर) .. Back to Sunday Campus

Monday, May 27, 2013

मुर्दों से युद्ध




  जीरमघाटी में हुआ हमला कोई पहला नक्सली हमला तो नहीं था.... फिर इतनी हाय तौबा क्यों? जंगलों में निरीह बेकसूर आदिवासी लगातार मारे जा रहे हैं। नक्सलियों की धरपकड़ और एनकाउन्टर के लिए लगाई गई फोर्स के जवान शहीद हो रहे हैं। हम शहरों में बैठकर शब्दों से खेल रहे हैं। यहीं आसपास सुरक्षाबलों के 76 कर्मठ, युवा साहसी और स्वस्थ युवाओं के खून की होली खेली जा चुकी है। सिंगारम से लेकर एड़समेटा तक सैकड़ों बेगुनाह अपनी जान गंवा चुके हैं। अब तो हमें समझ लेना चाहिए कि गोलियां लंगोटी छाप आदिवासी और खादी धारी नेता में कोई फर्क नहीं करतीं। जान बड़े आदमी की हो या छोटे आदमी की, एक गोली काफी होती है।

दरअसल यह स्वार्थों की लड़ाई है जो अब बेमेल होने के चरम पर है। एक तरफ वेतनभोगी लड़ाके हैं जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए शासन की नौकरी कर रहे हैं। दूसरी तरफ अपने पैरों पर खड़ी जिन्दा लाशें हैं जिनके पास गंवाने को कुछ नहीं। हाथों में बंदूक लेकर बीहड़ों में भागते फिरना उनका शौक नहीं, उनकी नियती है। सालों पहले जब आदिवासी अंचलों में नक्सली, माओवादी या सशस्त्र प्रतिरोध नहीं था, तब शासन का छोटे से छोटा मुलाजिम वहां बाघ की हैसियत रखता था। उसे खुश रखने के लिए लोग मुर्गियां, बकरे और वनोपज मुफ्त पहुंचाया करते थे। कुछ लोग आदिवासियों की बहन बेटी की इज्जत से खेला करते थे। अव्वल तो शिकायत होती ही नहीं थी। होती भी थी तो कोई सुनता नहीं था।

फिर ये कथित दादा आए...। इन्होंने सरकारी अधिकारियों की ठुकाई की और गांव वालों के भगवान हो गए। कुछ साल मजे में कटे और फिर शासन ने इनका प्रतिरोध या यूं कहें दमन करने की कोशिशें शुरू कर दीं। गांव वाले दो चाकों के बीच पिस गए। कुछ लड़कों को नक्सली समूह की ताकत और बंदूकों के जोर पर उठा ले गए। बाकी बचे युवकों को बाद में सलवा जुडूम के लोग उठा ले गए। घर में बच गए बच्चे, बूढ़े और लड़कियां। ये निहत्थे लोग कभी इसकी तो कभी उसकी गोलियों का शिकार बन गए। इन्हें बताया गया कि इनका अब मरना तय है, इसलिये क्यों न अंतिम लड़ाई लड़ी जाए। और ये सिर पर कफन बांधकर जंगलों में चले गए। इनसे हथियारों की कोई भी लड़ाई जीती ही नहीं जा सकती। ये जिंदा लाशें हैं। इनकी आंखों में तरक्की का कोई सपना नहीं बल्कि सिर्फ अपमान, असहाय आक्रोश और बदले की चिंगारियां हैं।

डाकुओं और आतंकवादियों का भी पुनर्वास होता है। पर इन आदिवासियों के लिए पुनर्वास का कोई अर्थ नहीं। सलवा जुडूम कार्यकर्ता पुलिस के साये से हटा नहीं कि नक्सली उसे मार देते हैं। नक्सलियों के चंगुल से छूटकर कोई आया नहीं कि पुलिस उसकी ऐसी दुर्गत कर देती है कि वह मौत मांगने लगता है। मुक्त जंगलों में, प्रकृति के नियम कानून से बंधे आदिवासियों को बंदी की असहाय मौत मरना मंजूर नहीं। इसलिए उनके लौटना का भी सवाल नहीं पैदा होता।

ऐसा क्यों हुआ? यह एक बड़ा प्रश्न है। ऐसा सिर्फ जंगलों में नहीं हुआ। स्वार्थी इंसान ने हर जगह सिर्फ अपनी अहमियत को तवज्जो दी है। पैसे कमाकर घर से लेकर दफ्तर, अपनी कार से लेकर ट्रेन के वातानुकूलित वातावरण में सफर करने वाला स्वार्थी शायद ही कभी यह सोचता है कि उसे ठंडा रखने के एवज में कम्प्रेशर बाहर की गर्मी में इजाफा कर रहा है। अपने आवास में 8 से 12 इंच का बोरिंग लगाने वाले लोगों को यह एकबार भी नहीं सूझता कि वह बेशकीमती भूजल का दोहन कर रहा है। चूंकि यह पानी उसका है इसलिए वह बेहिचक उसका जैसा चाहे दोहन-उपयोग-दुरुपयोग कर सकता है। खेतों में अनाज उगाने वाले की दिहाड़ी 150 रुपए है और डिग्री की बदौलत स्कूलों-दफ्तरों में अलाली करने वालों की 1500 रुपए। जब बात स्वार्थों की आती है तो डिक्टेटरशिप और लोकतंत्र में कोई फर्क नहीं रह जाता। हम सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय की सोच भी नहीं सकते।

तो क्या नक्सली हमेशा रहेंगे? नहीं! ऐसा हो नहीं सकता। सृष्टि का नियम है कि हर चीज का अंत होगा। इस लिहाज से नक्सलवाद का भी अंत तय है। देश के वन ग्रामों में वैसे भी बहुत कम लोग रहते हैं। जैसा कि पहले ही कहा गया, लगभग सभी युवा बंदूक थाम चुके हैं। अब बच्चे और युवतियां भी नदी पहाड़-गोला बारूद खेल रहे हैं। बचे खुचे बूढ़े मामूली बीमारियों से दम तोड़ देंगे। जंगल खाली हो जाएंगे तो लड़ाई भी बंद हो जाएगी। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।


Wednesday, May 22, 2013

टेंशन में फायरिंग कर बैठती है फोर्स



  • आदिवासी जनजीवन का कोई आइडिया नहीं
  • सरईगुड़ा कांड के बाद लेनी चाहिए थी सीख
  • कोबरा नाम रख लेना सफलता की गारंटी नहीं

बीजापुर। बस्तर के जंगलों में युद्ध जैसे हालात हैं। फोर्स तथा नक्सली दोनों को ही हर आहट दुश्मन की लगती है। लड़ाई जीतने का एक तरीका यह भी है कि पहले वार करो और कम से कम नुकसान पर अधिक से अधिक नतीजे पाओ। एडसामेटा के जंगलों में, और उससे भी पहले सिंगारम या सरईगुड़ा में जो कुछ हुआ, वह इसी का नतीजा था। फोर्स को जैसे ही नक्सली उपस्थिति का आभास हुआ उसने ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर युद्ध का फैसला अपनी ओर करने की कोशिश की। यह और बात है कि वहां पूजापाठ के लिए एकत्र हुए ग्रामीण ही थे और तीन बच्चों समेत आठ लोगों की मौत हो गई।
सुरक्षा बलों से जुड़े सूत्र बताते हैं कि फोर्स भी करे तो क्या करे। नक्सली इस तरह के हथकंडों को अपनाने के लिए बदनाम हैं। वे निरीह ग्रामीणों को धमकाकर जंगलों में एकत्र करते हैं और फिर उनकी मीटिंग लेते हैं। इसलिए जब भी मुठभेड़ होते हैं तो नक्सलियों के अलावा निर्दोष ग्रामीण भी मारे जाते हैं। ऐसा युद्ध क्षेत्र में भी आम होता है। जिले के पुलिस अधीक्षक अग्रवाल बताते हैं कि इसे एक चूक कहें या हालात की मजबूरी, पर यह होता है।

गागड़ा सख्त नाराज

बीजापुर विधायक महेश गागड़ा एडसामेटा में पुलिस की गोलियों से हुई बच्चों सहित आदिवासियों की मौत को केवल चूक बताए जाने से बेहर व्यथित हैं। उनका कहना है कि इससे पहले सरईगुड़ा में भी इसी तरह की वारदात हुई थी। सरकार को नीचे देखना पड़ा था। इसके बावजूद कोई सीख नहीं ली गई। सशस्त्र बलों को यह बताने वाला कोई तो होना ही चाहिए कि जंगल में लगने वाला हर जमावड़ा नक्सलियों का नहीं होता।
श्री गागड़ा ने कहा कि फोर्स को आदिवासियों की पूजा पद्धति, सामाजिक सरोकारों, संस्कारों की कोर्ई जानकारी नहीं है। आदिवासी कई बार केवल पूजा पाठ के लिए जंगल के बीच समूह में एकत्र होते हैं।  पुलिस और सशस्त्र बल उन्हें नक्सली समझ लेते हैं और अंधाधुंध फायरिंग करने लगते हैं। सरईगुड़ा में भी यही गलती हुई थी किन्तु फोर्स ने उससे कोई सबक नहीं लिया। आंध्रप्रदेश में ऐसी गलतियां नहीं होतीं क्योंकि वह फोर्स में स्थानीय युवा होते हैं। यहां भी ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। जनप्रतिनिधियों की भी मदद ली जा सकती है।
हालांकि गागड़ा अभी तक एडसामेटा नहीं पहुंचे हैं, और परिस्थितियों को देखते हुए, उनका पहुंच पाना संभव भी नहीं लगता, लेकिन वह उस सच तक पहुंच गए हैं जिसकी वजह से सरकार को मारे गए ग्रामीणों के परिजनों को लाखों का मुआवजा देना पड़ रहा है।
भाजपा विधायक स्वयं नक्सलियों के निशाने पर हैं। हाल ही में नक्सलियों ने खुद ई-मेल कर पुलिस के आला अधिकारियों तक यह बात पहुंचाई थी। बीते दस दिन में दो बार बाल-बाल बचे हैं। दुपहिया पर संवेदनशील इलाकों का दौरा करने वाले गागड़ा को ग्रामीण सही वक्त पर सही सूचना देकर खतरों से आगाह कर देते हैं।

ग्रेहाउंड की नकल काफी नहीं

महेश मानते हैं कि, आंध्रा के ग्रेहाउंड में स्थानीय निवासी हैं, यहां ंऐसा नहीं है। कोबरा या एसटीएफ नाम सफलता की गारंटी नहीं होती। जरूरी है बल में स्थानीय निवासी हों, जो लोक परंपरा और स्थानीय चीजों को जानें समझें। इसमें स्थानीय जनप्रतिनिधियों की सहभागिता होनी चाहिए। राजधानी के एसी कमरे में बैठकर योजना बनाने वाले प्लानर ना बस्तर को समझते हैं, ना आम बस्तरिहा को जानते हैं।

सलवा जुडूम में भी चूक

गागड़ा मानते हैं कि, सलवा जुडूम में गलतियां हुई। इसमें बगैर सोचे समझे विस्तार और कमान राजनेताओं के हाथ में आना,  जुडूम का अनियंत्रित होना ऐसे मामले थे, जिसका फायदा नक्सलियों को हुआ। अब निशाने पर आदिवासी हैं जो अब हर तरफ से असुरक्षित हो गए हैं।

बड़े मनमौजी थे राजीव


सुरक्षा कवच के हटने से ही राजीव गांधी की श्रीपेरुम्बुदूर में आसानी से हत्या कर दी गई। इससे पहले भी राजीव अपनी सुरक्षा को लेकर बेहद लापरवाह थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे जब-तब सुरक्षा घेरे को तोड़कर निकल जाते थे। एक बार तो उन्होंने अपने पीछे लगी कारकेड की पांच-सात गााड़ियों की चाभी निकाल ली थी और उन्हें भारी वर्षा में बीच सड़क छोड़कर सोनिया के साथ जीप से फुर्र हो गए थे।
प्रधानमंत्री होते हुए भी राजीव गांधी को यह कतई पसंद नहीं था कि जहां वे जाएं, उनके पीछे-पीछे उनके सुरक्षाकर्मी भी पहुंचें। उनकी मां की हत्या और उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा दी गई थी। फिर भी राजीव गांधी की पूरी कोशिश होती थी कि वह अपने सुरक्षाकमिर्यों को गच्चा दें, जहां चाहें वहां जा सकें। जब भी राजीव ऐसा करते थे उनके एसपीजी अधिकारियों की नींद उड़ जाया करती थी। राजीव गांधी अपनी जीप खुद ड्राइव करना पसंद करते थे और वह भी बहुत तेज स्पीड में।
1 जुलाई, 1985 को मूसलाधार बारिश हो रही थी। तभी अचानक खबर आई कि वायुसेना अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल लक्ष्मण माधव काटरे का निधन हो गया है। दोपहर बाद राजीव गांधी और सोनिया गांधी उनके निवास स्थान पर पहुंचे और श्रीमती काटरे के साथ करीब पंद्रह मिनट बिताए। प्रधानमंत्री के साथ उनका पूरा मोटरकेड था। चूंकि एसपीजी वालों को पता नहीं था कि काटरे के निवास से सोनिया गांधी राजीव की कार में बैठेंगी या अपनी कार में कहीं और जाएंगी, इसलिए सोनिया के सुरक्षाकर्मी भी उसी मोटरकेड में साथ साथ चल रहे थे।
जैसे ही राजीव बाहर आए, उन्होंने इन सभी कारों को वहाँ खड़े देखा। उन्होंने एक अधिकारी को बुला कर हिदायत दी कि वे सुनिश्चित करें कि यह कारें उनकी कार के पीछे न आएं। लेकिन जब वह सोनिया के साथ अपनी जीप में बैठे तो उन्होंने देखा कि सभी कारे उनके पीछे पीछे चल रही हैं।
राजीव ने अपनी जीप रोकी। मूसलाधार बारिश में बाहर निकले। अपने ठीक पीछे आ रही एस्कॉर्ट कार का दरवाजा खोला और उसकी चाबी निकाल ली। इसके बाद उन्होंने पीछे चल रही दो और कारों की चाबी निकाली। जैसे ही कारों का काफिला रुका पीछे आ रहे दिल्ली पुलिस के उप आयुक्त यह जानने के लिए अपनी कार आगे ले आए कि माजरा क्या है। उसके पांव से जमीन निकल गई जब राजीव ने बिना कुछ कहे उसकी कार की भी चाबी निकाल ली। राजीव ने सभी चाबियां पानी से भरे नाले में फेंक दीं और सोनिया के साथ अकेले आगे बढ़ गए। एसीपी की समझ में ही नहीं आया कि क्या करें।
जबरदस्त बारिश हो रही थी और प्रधानमंत्री के काफिले की सभी छह कारें बिना चाबी के राजाजी मार्ग के बीचों-बीच खड़ी थीं। उनको बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि राजीव गए कहां हैं। पंद्रह मिनट बाद उनकी जान में जान आई जब उन्हें पता चला कि राजीव सकुशल सात रेसकोर्स रोड पर पहुंच गए हैं।
जिम्मेदार राजीव
एक  बार रात के बारह बजे उन्होंने गृह सचिव आर डी प्रधान को फोन मिलाया। उस समय प्रधान गहरी नींद सो रहे थे। उनकी पत्नी ने फोन उठाया। राजीव बोले, क्या प्रधान जी सो रहें हैं, मैं राजीव गांधी बोल रहा हूँ। प्रधान की पत्नी ने तुरंत उन्हें जगा दिया।
राजीव ने पूछा, आप मेरे निवास से कितनी दूर रहते हैं? प्रधान ने बताया कि वह पंडारा रोड पर हैं. राजीव बोले, मैं आपको अपनी कार भेज रहा हूँ. आप जितनी जल्दी हो, यहाँ आ जाइए। उस समय राजीव के पास पंजाब के राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर राय कुछ प्रस्तावों के साथ आए हुए थे। चूंकि राय उसी रात वापस चंडीगढ़ जाना चाहते थे, इसलिए राजीव ने गृह सचिव को इतनी रात गए तलब किया था।
दो घंटे तक यह लोग मंत्रणा करते रहे। रात दो बजे जब सब बाहर आए तो राजीव ने आरडी प्रधान से कहा कि वह उनकी कार में बैंठें। प्रधान समझे कि प्रधानमंत्री उन्हें गेट तक ड्रॉप करना चाहते हैं। लेकिन राजीव ने गेट से बाहर कार निकाल कर अचानक बार्इं तरफ टर्न लिया और प्रधान से पूछा, मैं आपसे पूछना भूल गया कि पंडारा रोड किस तरफ है।
अब तक प्रधान समझ चुके थे कि राजीव क्या करना चाहते हैं। उन्होंने राजीव का स्टेयरिंग पकड़ लिया और कहा, सर अगर आप वापस नहीं मुड़ेंगे तो मैं चलती कार से कूद जाऊंगा।
प्रधान ने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने उनसे वादा किया था कि वह इस तरह के जोखिम नहीं उठाएंगे। बड़ी मुश्किल से राजीव गांधी ने कार रोकी और जब तक गृह सचिव दूसरी कार में नहीं बैठ गए वहीं खड़े रहे।
(80 के दशक में भारत के गृह सचिव और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे आर डी प्रधान से बातचीत पर आधारित)

क्या वाकई इंदिरा ने लूट लिया था गायत्री देवी का खजाना

1975 में जब देश में आपातकाल लागू हुआ तो जयपुर की महारानी गायत्री देवी ने इसका खुलकर विरोध किया। गायत्री देवी के विरोध का परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी ने आयकर विभाग को राजघराने की संपत्ति की जांच के आदेश दे दिए। संपत्ति की जांच में सेना भी लगाई गई। तीन महीने तक जयगढ़ के किले को खंगालने के बाद जयपुर दिल्ली राजमार्ग को सील कर दिया गया। कहा जाता है कि इसी मार्ग से होकर सेना के वाहन गायत्री देवी का खजाना लेकर दिल्ली गए।
राजस्थान की राजशाही के इतिहास पर नजर रखने वाले लोग बताते हैं कि अकबर के दरबार में सेनापति रहे जयपुर के राजा मानसिंह (प्रथम) ने शहंशाह के आदेश पर अफगानिस्तान पर धावा बोला था। फतह हासिल करने के बाद मानसिंह के हाथ काफी धन दौलत और हीरे जवाहरात लगे। मानसिंह ने खजाने को अकबर को सौंपने के बजाय अपने पास ही रख लिया। इस घटना के बाद ये चर्चा चलने लगी कि राजघराने ने खजाने को कहीं छिपाकर रखा है। जयगढ़ किले के निर्माण के बाद कहा जाने लगा कि इसमें बनी पानी की विशालकाय टंकियों में सोना-चांदी और हीरे-जवाहरात छिपा कर रखे गए हैं। जयगढ़ किले में खजाने के छिपे होने की चर्चा आजादी के बाद भी चलती रही। इस समय जयपुर राजघराने के प्रतिनिधि राजा सवाई मान सिंह (द्वितीय) और उनकी पत्नी गायत्री देवी थे। 'स्वतंत्र पार्टी' के सदस्य होने के चलते ये दोनों लोग कांग्रेस के विरोधी थे।
गायत्री देवी का जन्म कूचबिहार (बंगाल) के पूर्व महाराजा जितेन्द्र नारायण भूप बहादुर के परिवार में 23 मई 1919 को लंदन में हुआ। उनकी शिक्षा शांतिनिकेतन, लंदन और स्विट्जरलैण्ड में हुई। 19 साल की उम्र में उनका विवाह जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय से हुआ था। सवाईमान सिंह ने तीन शादियां की थी। उन्होंने तीसरी शादी गायत्री देवी से की थी। वो 1939-1970 तक जयपुर की महारानी रहीं। सवाई मानसिंह द्वितीय जयपुर के अंतिम राजा थे। स्वतंत्रता के बाद सभी राजवंशों का राजस्थान में विलय हो गया था।
महारानी गायत्री देवी ने 1962 में सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया और स्व. राजगोपालाचार्य द्वारा संस्थापित स्वतंत्र पार्टी की राज्य शाखा की अध्यक्ष बनी। वह 1962, 1967 और 1971 के चुनावों में जयपुर संसदीय क्षेत्र से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लोकसभा सदस्य चुनी गर्इं। वर्ष 1962 के चुनावों में उन्हें समूचे देश में सर्वोच्च बहुमत से चुनाव में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ। चुनाव में उन्हें कुल 2 लाख 46 हजार 516 में से रिकॉर्ड 1 लाख 92 हजार 909 वोट प्राप्त हुए। वर्ष 1977 में राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनने पर आपको राजस्थान पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
महारानी गायत्री देवी को वोग मैग्जीन ने दुनिया की 10 सबसे सुंदर महिलाओं की सूची में शामिल किया था। राजस्थान में पोलो को बुलंदियों तक पहुंचाने में उनकी अहम भूमिका रही। जयपुर में सामाजिक सुधार और शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गायत्री देवी बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। कला-संस्कृति के क्षेत्र में उनका योगदान सराहनीय रहा।
उनका जनता के साथ सीधा संवाद था। वे जयपुर के महारानी गायत्री देवी पब्लिक स्कूल की संस्थापक अध्यक्ष होने के साथ ही महाराजा सवाई बेनीवोलेंट ट्रस्ट, महारानी गायत्री देवी सैनिक कल्याण कोष, सवाई मानसिंह पब्लिक स्कूल और सवाई रामसिंह कला मंदिर की भी अध्यक्ष थीं। वह अखिल भारतीय लान टेनिस एसोसिएशन और अखिल भारतीय स्वतंत्र पार्टी की उपाध्यक्ष भी रहीं। वह महाराजा जयपुर म्यूजियम ट्रस्ट की ट्रस्टी भी थीं। गायत्री देवी केवल जयपुर की महारानी ही नहीं थीं, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय शख्सियत थीं। उनकी ए पिंरसेस रिमेम्बर्स तथा ए गवनर्मेंट्स गेट वे" नामक पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी हैं।
गायत्री देवी का निधन 90 वर्ष की उम्र में 29 जुलाई 2009 संतोकबा दुर्लभजी अस्पताल में हो गया।


Tuesday, May 21, 2013

प्रायमरी स्कूलों में शिक्षकों के बजाय हेल्पर क्यों



  • विद्या सहायक स्कीम पर कोर्ट की टिप्पणी
  • 2500 का शिक्षक साबित होगा विद्या शत्रु 
  • शिक्षा के अधिकार से यह कैसा मजाक
  • गुजरात की विद्या सहायक स्कीम कोर्ट के निशाने पर

नई दिल्ली। गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है। गुजरात सरकार की विद्या सहायक स्कीम सुप्रीम कोर्ट के निशाने पर है। कोर्ट ने गुजरात सरकार की इस स्कीम के जरिए प्राइमरी स्कूलों में विद्या सहायकों की नियुक्ति करने की कड़ी आलोचना की है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जब देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो चुका है। ऐसे में स्कूलों में फुल टाइम यानी स्थाई टीचरों की नियुक्ति क्यों नहीं की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि विद्या सहायक के तौर पर नियुक्त हो रहे टीचर विद्या शत्रु ज्यादा हैं। इस मामले में कोर्ट ने मोदी सरकार से बुधवार तक जवाब तलब किया है।
गुजरात टीचर यूनियन सरकार की विद्या सहायक स्कीम के खिलाफ पहले हाई कोर्ट गई थी। हाई कोर्ट ने गुजरात सरकार को फटकार लगाई थी और कहा था कि विद्या सहायकों को पहले दिन से टीचर का पे स्केल दिया जाए। इस फैसले के खिलाफ मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। जिसपर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि महज ढाई हजार रुपए की सैलरी पर टीचर आखिर कैसे काम कर रहे हैं?

सड़ाने के बजाय एक्सपोर्ट करें गेहूं


नई दिल्ली। भारतीय खाद्य निगम के परिसरों में गोदामों के अभाव में आसमान तले पड़े गेहं का अगर निर्यात कर दिया जाएं तो सरकार की झोली में 25 हजार करोड़ रूपये आ सकते हैं। देश के कई राज्यों में खुले में पड़े यह गेहं करीब एक करोड़ 70 लाख टन के है। एसोसिएटिड चैम्बर्स आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री (एसौचेम) के एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है। साथ ही दीर्घावधि कृषि निर्यात नीति के हक में राय व्यक्त की गई है। कहा गया है कि 50 अरब डॉलर के महत्वाकांक्षी कृषि निर्यात लक्ष्य को बनाये रखा जाएं क्योंकि इससे चालू खाते के घाटे को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। गौरतलब है कि 2012-13 में भारत ने 33.54 अरब डॉलर के कृषि और संबद्ध उत्पादों का निर्यात किया था
उद्योग मंडल एसौचेम के अध्ययन ‘कृषि निर्यात: ऊंची संभावना और कारर्वाई एजेंडा’ में इस बात का जिक्र है कि कृषि निर्यात में सॉफ्टवेयर एवं सेवा निर्यात के बाद दूसरा सबसे अधिक विदेशी आमदनी का स्रोत बनने की क्षमता है। अध्ययन में कहा गया है कि उंचे कृषि निर्यात से फसल विविधीकरण, फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में सहायता मिलेगी साथ ही किसान भी वैश्विक स्तर पर मांग को पूरा करने के लिए विशेष फसलों के उत्पादन पर धान देंगे।
एसोचैम के अध्यक्ष राजकुमार धूत ने कहा है कि 2013-14 के लिए सरकार को कृषि निर्यात का लक्ष्य 50 अरब डॉलर रखना चाहिए और 2017 तक इसे बढ़ाकर 70 अरब डॉलर तक कर देना चाहिए। इस कदम से सरकार को चालू घाटा नियंत्रित करने में आसानी होगी।
धूत का कहना है कि पंजाब में 4415 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक गेहंू का उत्पादन देखने में आता है जबकि बिहार में यह आंकड़ा 1946 किलोग्राम पर सिमट जाता है। जबकि बिहार जल संसाधन और बरसात के मामले में पंजाब से बेहतर स्थिति में है। उन्होंने कहा कि गुजरात की तर्ज पर सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियों को पूर्वी राज्यों में अपनाने की जरूरत है।
एसोचैम के अध्ययन में इब बात पर बल दिया गया है कि कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और उत्पादन बढ़ाने के लिए लंबी अवधि के निवेश पर ध्यान देने की जरूरत है।

बालिग की सहमति से यौन संबंध बलात्कार नहीं


नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने आज कहा कि बालिग महिला मित्र की सहमति से यौन संबंध स्थापित करने वाले व्यक्ति पर बलात्कार के आरोप में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता बशर्ते उसकी महिला मित्र से विवाह करने की मंशा हो।
न्यायमूर्ति बी एस चौहान और न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की खंडपीठ ने कहा कि यदि लड़की प्रेमवश यौन संबंध स्थापित करती है लेकिन किन्हीं कारणवश उनका विवाह नहीं हो सका तो ऐसा व्यक्ति बलात्कार का आरोपी नहीं हो सकता।
न्यायाधीशों ने कहा, ‘अदालत को इस तथ्य का परीक्षण करना चाहिए कि क्या आरोपी ने शुरू में विवाह का झूठा वायदा किया था और क्या यौन संबंध के स्वरूप और परिणाम को पूरी तरह समझते हुये इसकी सहमति दी गयी थी। ऐसा भी हो सकता है जहां पीड़ित आरोपी के प्रति अपने प्रेम और आसक्ति के कारण यौन संसर्ग के लिये तैयार हो गयी हो और आरोपी द्वारा गलत तस्वीर पेश करने के कारण ऐसा नहीं हुआ हो या विवाह करने की मंशा रखने के बावजूद आरोपी अपरिहार्य कारणों या परिस्थितियां उसके नियंत्रण से बाहर होने की वजह से उससे विवाह करने में असमर्थ रहा हो। ऐसे मामलों पर अलग दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।’
न्यायाधीशों ने कहा कि बलात्कार और सहमति से यौन संबंध स्थापित करने में अंतर है और एक आरोपी को बलात्कार के अपराध में सिर्फ उसी स्थिति में दोषी ठहराया जा सकता है यदि अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि उसकी दुर्भावनापूर्ण और गुप्त मंशा थी।
शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही युवक को बलात्कार के जुर्म में सात साल की सजा सुनाने के निचली अदालत के निर्णय को सही ठहराने वाले पंजाब एवं हरियाणा  उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया।
न्यायालय ने यह तथ्य जानने के बाद बलात्कार के आरोपी को बरी कर दिया कि उसकी मंशा अपनी 19 वर्षीय महिला मित्र से विवाह करने की थी और ऐसा कोई सबूत नहीं है कि उसका वायदा झूठा था।
न्यायालय ने कहा, ‘पर्याप्त साक्ष्य होने चाहिए कि अमुक समय अर्थात शुरूआती दौर में, आरोपी की पीड़ित से विवाह करने के वायदे पर कायम रखने की कोई मंशा नहीं थी। कुछ परिस्थितियां भी हो सकती हैं जब बेहतरीन मंशा रखने के बावजूद एक व्यक्ति अनेक अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण पीड़ित से विवाह करने में असमर्थ होता है।’
न्यायालय ने कहा, ‘बलात्कार और सहमति से यौन संबंध में स्पष्ट अंतर है और इस तरह के मामले में अदालत को बहुत सावधानी से तथ्यों का परीक्षण करके पता लगाना चाहिए कि क्या आरोपी वास्तव में पीड़ित से शादी करना चाहता था या दुर्भावनापूर्ण मंशा थी और सिर्फ अपनी वासना की पूर्ति के लिये ही उसने झूठा वायदा किया था क्योंकि बाद वाली स्थिति छल और कपट के दायरे में आती है।’


Friday, May 3, 2013

प्राण को दादा साहेब फाल्के सम्मान

पान सिंह को सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार

राजा हरिशचंद्र के प्रदर्शन को बीते 100 साल

नई दिल्ली। एथलीट से डकैत बने पान सिंह तोमर की कहानी पर बनी फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। इसी फिल्म के लिए इरफान खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शुक्रवार को यहां 60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्रदान किए जिसमें मराठी और मलयालम फिल्मों का दबदबा रहा।
बीते जमाने के मशहूर खलनायक और चरित्र अभिनेता प्राण को दादा साहेब फाल्के सम्मान दिया गया। स्वास्थ्य के चलते वे स्वयं नहीं आ सके। इस मौके पर उनके परिवार का संदेश स्क्रीन पर दिखाया गया।
भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरीशचंद्र’ आज ही के दिन सौ साल पहले प्रदर्शित हुई थी। इस मौके पर मुखर्जी ने 50 विशेष डाक टिकट भी जारी किए। सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी और सूचना प्रौद्योगिकी तथा संचार मंत्री कपिल सिब्बल भी मौजूद थे।
पान सिंह तोमर के निर्देशक तिगमांशु धूलिया को स्वर्ण कमल और ढाई लाख रुपए दिए गए। अभिनेता विक्रम गोखले को मराठी फिल्म ‘अनुमति’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया। वहीं उषा जाधव को मराठी फिल्म ‘धग’ के लिये सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और इसी फिल्म के निर्देशक शिवाजी पाटिल को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया। ‘विकी डोनर’ और मलयालम फिल्म ‘उस्ताद होटल’ को सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय मनोरंजक फिल्म का पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया। निर्माता जान अब्राहम को दर्शकों से सबसे ज्यादा तालियां मिली।
‘विकी डोनर’ के कलाकारों अन्नू कपूर और डॉली आह्लूवालिया ने सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता और सह अभिनेत्री का पुरस्कार लिया। डॉली के साथ सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का पुरस्कार मलयालम फिल्म ‘तानीचल्ला नजान’ के लिए अभिनेत्री कल्पना को मिला।
निर्देशक सुजॉय घोष को हिन्दी फिल्म ‘कहानी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ मूल पटकथा लेखक घोषित किया गया। ‘कहानी’ को दूसरा राष्ट्रीय पुरस्कार नम्रता राव ने सर्वश्रेष्ठ संपादन के लिए दिलाया।
‘ओह माई गॉड’  के लिए उमेश शुक्ला और भावेश मंडालिया को सर्वश्रेष्ठ रूपांतरित पटकथा का पुरस्कार दिया गया। वेदव्रत पेन की पहली हिंदी फिल्म ‘चटगांव’ और  सिद्धार्थ शिवा की मलयालम फिल्म ‘101 चोडियांगल’ को सर्वश्रेष्ठ प्रथम फिल्म के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार दिया गया।
‘चटगांव’ के ‘बोलो ना’ गीत के लिए प्रसून जोशी को सर्वश्रेष्ठ गीतकार जबकि शंकर महादेवन को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का पुरस्कार मिला। मराठी फिल्म ‘संहिता’ के गीत ‘पलकें ना मुंदूं’ के लिए आरती अंकलेकर टिकेकर को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का पुरस्कार दिया गया।
ज्यूरी के विशेष पुरस्कारों में आमिर खान अभिनीत ‘तलाश’, ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’, ‘कहानी’ और ‘देख इंडियन सर्कस’ के अलावा बांग्ला फिल्म ‘च्रिदांगदा’ के साथ को पुरस्कार दिए गए।
‘उस्ताद होटल’ के लिए अंजलि मेनन ने सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का पुरस्कार पाया। ‘तनीचल्ला नजान’ ने सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री के साथ राष्ट्रीय एकता श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का नरगिस दत्त पुरस्कार भी पाया। नशाखोरी पर बनी मलयालम फिल्म ‘स्पिरिट’ को सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला।
हिंदी फिल्म ‘देख इंडियन सर्कस’ को सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म और इसके कलाकार वीरेंद्र प्रताप ने सर्वश्रेष्ठ बाल अभिनेता का खिताब ‘101 चोडियांगल’ के साथ साझा किया। निखिल आडवाणी निर्देशित ‘डेल्ही सफारी’ को सर्वश्रेष्ठ एनिमेशन फिल्म का पुरस्कार मिला।
कमल हासन की विवादास्पद फिल्म ‘विश्वरूपम’ ने सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन डिजाइन का खिताब अपने नाम किया। इसी फिल्म के लिए पंडित बिरजू महाराज ने सर्वश्रेष्ठ नृत्य निर्देशक का पुरस्कार भी पाया।
तमिल फिल्म ‘परदेसी’ के लिए पूर्णिमा रामास्वामी को सर्वश्रेष्ठ वेशभूषा डिजाइनर जबकि तमिल फिल्म ‘वजाक्कुएन 18 बटा 9’ के लिए राजा ने सर्वश्रेष्ठ मेकअप आर्टिस्ट का पुरस्कार दिया गया।
सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफी का पुरस्कार ‘को: वाईएडी: को दिया गया। सर्वश्रेष्ठ आॅडियोग्राफी का पुरस्कार मलयालम फिल्म ‘अन्यम रसूलम’, ‘शब्दो’ और ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ को मिला। मलयालम फिल्म ‘कलियांचन’ और मराठी फिल्म ‘संहिता’ ने सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का पुरस्कार अपने नाम किया। तेलगू फिल्म ‘ईगा’ ने सर्वश्रेष्ठ विशेष प्रभाव का खिताब अपने नाम किया।
मलयालम फिल्म ‘ओझिमुरी’ के लिए अभिनेता लाल, कन्नड़ फिल्म ‘भारत स्टोर्स’ के लिए एच जी दत्तात्रेय, हिंदी फिल्म ‘इशकजादे’ के लिए परिणीति चोपड़ा, असमिया फिल्म ‘बांधो’ के लिए बिष्णु खड़गोरिया, हिंदी फिल्म ‘देख इंडियन सर्कस’ के लिए तनिष्ठा चटर्जी, मराठी फिल्म ‘धग’ के लिए हंसराज जगताप और मलयालम फिल्म ‘उस्ताद होटल’ के लिए दिवंगत अभिनेता तिलकन के नाम का विशेष तौर पर उल्लेख किया गया।
बीडी गर्ग कोे अंग्रेजी में लिखित ‘साइलेंट सिनेमा इन इंडिया-ए पिक्टोरियल जर्नी’ के लिये सिनेमा पर सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया गया। हाल ही में गर्ग का निधन हुआ है। जबकि मलयालम लेखक पी एस राधाकृष्णन और पीयूष रॉय के नाम का विशेष तौर पर उल्लेख किया गया।
फीचर फिल्म की 11 सदस्यीय ज्यूरी के अध्यक्ष वरिष्ठ फिल्मकार बासु चटर्जी थे जबकि गैर फीचर फिल्म ज्यूरी की अध्यक्ष अरुणा राजे थी। कार्यक्रम का संचालन अभिनेता आर माधवन और अभिनेत्री हुमा कुरैशी ने किया।
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यूपीएससी में फिर बेटियों का वर्चस्व



  • हरिता कुमार ने किया टॉप
  • टॉपर्स में से आधी लड़कियां
  • प्रथम 25 में छत्तीसगढ़ से कोई नहीं

नई दिल्ली। संघ लोक सेवा आयोग की ओर से आयोजित सिविल सेवा परीक्षा 2012 के अंतिम नतीजे घोषित कर दिए हैं। प्रथम स्थान पर केरल की हरिता वी कुमार है। लगातार तीसरे साल यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा में किसी महिला उम्मीदवार को पहला स्थान मिला है। इस बार टॉप 10 में 5 लड़कियां शामिल हैं।
यूपीएससी की ओर से घोषित नतीजों के मुताबिक, साल 2011 बैच की भारतीय राजस्व सेवा (सीमा शुल्क एवं केंद्रीय उत्पाद) की प्रशिक्षु अधिकारी हरिता वी कुमार को सिविल सेवा परीक्षा 2012 में पहला स्थान मिला है। सामान्य, अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अनुसूचित जाति (एससी) श्रेणियों में भी महिला उम्मीदवारों ने ही पहला स्थान प्राप्त किया है।
यह है टॉप 10
पहले स्थान पर केरल की हरिता वी कुमार रोल नं.- 075502, दूसरे स्थान पर केरल के ही श्रीराम वी रहेरी राम रोल नं.- 494891, तीसरे स्थान पर दिल्ली की स्तुति चरण रोल नं- 038970, एल वी जान वर्गिस - 072170, रुचिका कात्याल- 021963, अरूण थम्पू राजा ए 522630, टी प्रभू शंकर - 490683 , बंदना - 029178, चांदनी सिंह - 318892, आशीष गुप्ता -022927।
20 साल के अंतराल के बाद केरल के किसी स्टूडेंट ने सिविल सर्विसेज की परीक्षा में टॉप किया है। इस परीक्षा में कुल 998 उर्तीण हुए हैं जिनमें 180 को आईएएस रैंक, 20 को आईएफएफ रैंक और 150 को आईपीएस रैंक मिला है। बयान में कहा गया, शीर्ष 25 उम्मीदवारों में 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के निवासी हैं। इनमें आंध्र प्रदेश, बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के उम्मीदवार हैं।
शीर्ष 25 उम्मीदवारों की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी काफी अलग-अलग है। किसी के माता-पिता किसान हैं तो किसी के माता-पिता शिक्षक, व्यापारी, सरकारी कर्मी, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर या सिविल सेवक हैं।  इनमें छह ने पहले प्रयास, नौ ने दूसरे प्रयास, आठ ने तीसरे, और एक-एक ने चौथे और छठे प्रयास में सफलता प्राप्त की।

हरिता वी कुमार

केरल की हरिता ने आईएएस परीक्षा टॉप किया है। हरिता कुमार के लिए यह चौथी और आखिरी कोशिश थी। वह अभी दिल्ली के निकट फरीदाबाद में भारतीय राजस्व अधिकारी (आईआरएस) का प्रशिक्षण ले रही हैं। वह पेशे से इंजीनियर हैं। उन्होंने कहा, ‘पहली कोशिश में मैं सफल नहीं रही, दूसरी कोशिश में मुझे 179 वां स्थान मिला और मैं भारतीय पुलिस सेवा के लिए चुनी गई, लेकिन मैंने आईआरएस चुना, तीसरी कोशिश में मुझे 290 वां स्थान मिला और इस बार मुझे वह मिल गया, जिसकी मुझे तलाश थी। मैं दिल से भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी बनना चाहती थी।’ परीक्षा में वैकल्पिक विषय के रूप में उन्होंने अर्थशास्त्र और मलयालम भाषा का चुनाव किया था।

एल वी जान वर्गिस 

चौथे स्थान पर रहे वर्गीज एनार्कुलम जिले में केरल सरकार की सेवा में चिकित्सा अधिकारी हैं। वर्गीज ने कहा, ‘यह मेरी पहली कोशिश थी, मैंने पिछले साल जनवरी में तैयारी शुरू की थी। वैकल्पिक विषयों के रूप में मैंने मेडिसीन और मलयालम लिया था। इस परीक्षा में रटने से कुछ हासिल नहीं होता है। कड़ी मेहनत से ही मैंने अपने बचपन के सपने को साकार किया है।’

स्तुति चरण

तीसरे पायदान पर रहीं दिल्ली की स्तुति चरन का सिविल सेवा परीक्षा के लिए यह तीसरा प्रयास था। जोधपुर यूनिवर्सिटी से स्नातक करने वाली स्तुति ने इससे पहले भी लगातार दो साल तक सिविल सेवा परीक्षा में शामिल हुई, लेकिन उम्मीद के मुताबिक सफलता न मिलने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और कड़ी मेहनत की, जिसमें बलबूते उन्होंने यह मुकाम हासिल किया। इसके अलावा उन्होंने आईआईपीएम दिल्ली से कार्मिक और विपणन प्रबंधन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा भी प्राप्त किया।
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राजकीय सम्मान के साथ सरबजीत की अंत्येष्टि

बहन दलबीर ने दी मुखाग्नि

भिखीविंड। सरबजीत सिंह का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ पंजाब स्थित उनके पैतृक गांव भिखीविंड में कर दिया गया। सरबजीत की पत्नी सुखप्रीत कौर, बेटियों स्वप्नदीप और पूनम की मौजूदगी में उनकी बहन दलबीर कौर ने उन्हें मुखाग्नि दी। माहौल काफी गमगीन था और वहां हजारों की तादाद में मौजूद लोगों की आंखें नम थीं। पंजाब पुलिस की एक टुकड़ी ने पहले अपने शस्त्रों को पलटा और फिर हवाई फायरिंग कर 49 साल के सरबजीत को आखिरी सलामी दी।

राष्ट्रीय शहीद घोषित किया

चंडीगढ़। पंजाब विधानसभा ने अपने विशेष सत्र के दौरान सर्वसम्मति से सरबजीत सिंह को राष्ट्रीय शहीद घोषित कर दिया। सदन ने सरबजीत पर हुए जानलेवा हमले की किसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी से निष्पक्ष जांच कराने की भी मांग की। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा पेश प्रस्ताव में केंद्र से अपील की गई है कि वह इस बर्बर हमले के कारणों का पता लगाने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाए।

सिर पर लगी चोट बनी जानलेवा

लाहौर। सरबजीत सिंह के पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक उसके सिर में लगी चोट की वजह से बहुत ज्यादा अंदरूनी रक्तस्राव हुआ था। जिस मेडिकल बोर्ड ने सरबजीत के शव की आॅटोप्सी की थी उसके एक सदस्य ने बताया ‘ऐसा लगता है कि सरबजीत सिंह के सिर के ऊपरी हिस्से में लगी पांच सेमी चौड़ी चोट उसके लिए जानलेवा साबित हुई चेहरे, गर्दन और हाथों में जो चोटें मिलीं वह मामूली थीं। बोर्ड ने प्लीहा, गुर्दे, जिगर, बड़ी आंत और मस्तिष्क के कुछ हिस्सों के नमूने फारेन्सिक विश्लेषण के लिए भेजे हैं। वहीं एक आधिकारिक बयान में कहा गया है कि मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना था। पंजाब फोरेन्सिक साइंस एजेंसी से परीक्षण के नतीजे मिलने के बाद आटोप्सी की विस्तृत रिपोर्ट जारी की जाएगी।

बेमौत शहीद हो गया सरबजीत

सरबजीत की मौत को लेकर पूरे देश में गुस्से की लहर है। आरोप है कि एक सोची-समझी साजिश के तहत उसकी हत्या की गई है। क्लिक कीजिए और आगे पढ़िए वो 6 बातें जिनसे साबित होता है कि पाकिस्तान ने सरबजीत के साथ न्याय नहीं किया...
सरबजीत सिंह का केस मिसटेकन आइडेंटिटी यानी गलत पहचान का था। इंटेलिजेंस एजेंसियों ने कोर्ट के सामने उसे मनजीत सिंह के नाम से पेश किया था जो कि पाकिस्तान में आतंक फैलाने की कोशिशों के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार था।
सरबजीत की पहचान कभी आइडेंटिफाई या कोर्ट में साबित ही नहीं की जा सकी थी। न ही पाकिस्तान के पास कोई पुख्ता फोरेंसिक सबूत थे जो बम धमाके से उसका संबंध साबित कर पाते।
केस की सुनवाई अंग्रेजी में की जाती थी जबकि सरबजीत अंग्रेजी बोल और समझ नहीं पाता था। यहां तक कि उसे कोई अनुवादक भी नहीं दिया गया था। यानी, कोर्ट में क्या चल रहा है वह कुछ भी समझने में असमर्थ था।
सरबजीत पर की जा रही कानूनी कार्रवाई की सचाई पर कई गंभीर प्रश्न उठते थे। आरोप लगाए गए थे कि सरबजीत को पाकिस्तान की जेल में बुरी तरह टॉर्चर किया जाता था और गुनाह कुबूल करने के लिए उसपर दबाव डाला जाता था।
सरबजीत के केस का ट्रायल काफी संदेहास्पद था। ट्रायल फास्ट ट्रैक रखा गया था और प्रमुख गवाह बार-बार अपने बयान बदलता रहता था।
पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने 2008 में ही सरबजीत की फांसी की सजा पर रोक लगा दी थी, लेकिन उसे कभी आजाद नहीं किया गया जबकि सरबजीत की सेल के बाकी सभी कैदियों को छोड़ दिया गया।
राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के साथ जेल की सलाखों के पीछे कुछ वक्त बिताने वाले एक पूर्व भारतीय जासूस का मानना है कि सरबजीत की मौत के पीछे करक का हाथ है।


जम्मू जेल में पाकिस्तानी कैदी पर हमला, हालत गंभीर

जम्मू। जम्मू की कोट बलावल जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे एक 52 वर्षीय पाकिस्तानी कैदी सानुल्ला पर शुक्रवार सुबह हमला किया जिसके उसकी हालत गंभीर बताई जाती है। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि जेल अधीक्षक रजनी सहगल को निलंबित कर घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। सानुल्ला को सिर पर चोटें आई हैं और उसकी हालत गंभीर है। सानुल्ला को पहले मेडिकल कॉलेज अस्पताल में दाखिल किया गया जहां से उसे एयर एम्बुलेंस के जरिए पीजीआई चंडीगढ़ भेज दिया गया। सानुल्ला को अप्रैल 1999 में आतंकी गतिविधियों से संबंधित पांच मामलों में गिरफ्तार किया गया था।

जेल अधीक्षक निलंबित, जांच के आदेश

जम्मू कश्मीर के गृहमंत्री सज्जाद किचलू ने बताया, घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। जेल अधीक्षक रजनी सहगल और अन्य कर्मियों को निलंबित कर दिया है।

सरबजीत की मौत का बदला!

भारतीय कैदी सरबजीत सिंह की मौत की खबर के एक दिन बाद यह घटना हुई है। सरबजीत पर पाकिस्तान के कोटलखपत जेल में छह कैदियों ने हमला किया था। सरबजीत कोमा में चला गया था तथा बुधवार देर रात उसने आखिरी सांसें लीं। पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रवक्ता एजाज अहमद चौधरी ने हमले को सरबजीत सिंह की मौत का स्पष्ट तौर पर बदला करार दिया। उन्होंने कहा कि यह निन्दनीय है।
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Thursday, May 2, 2013

CAD ACADEMY adjudged “Best ATC in Central & East India”


CAD ACADEMY Once Again Awarded PTC - “Best ATC in Central & East India”

CAD Academy which is in the field of technical Computer Aided Designing, Computer Aided Manufacturing and Computer Aided Engineering education and training on softwares from last 21 years had been invited for the 3rd time continuously in the LEAP – 3rd Annual ATC Meet -2013 at Pune (Mah). In this international meet CAD Academy had added another jewel in its crown just 4 years before its “Silver Jubilee”- 25 years of its establishment. CAD Academy had been awarded “ Best ATC in central and East India for 2013” in front of Mr. Matt Cohen, Deputy Vice president, PTC university, USA. On this mind blowing occasion after receiving the award Director of CAD Academy Mr. Nitin Pandya addressed all the international and national dignitaries, higher authorities, officials and other ATC representatives in a small thanks giving speech. “ We are delighted to be the second time recognized Best ATC in Central & East India for 2013-14 after 2011-12. Becoming an ideal educational and training center requires a commitment to achieving and maintaining the high standards without compromising on any essential issue have made CAD Academy today a nationally recognized center….
We express our heartily gratitude for all types of staff at H.O and Branch offices of CAD Academy which we considered as a backbone of our institute. And last but not the least we would like to heartily thanks all our ex and present trainees, institutes, corporate, all subsidiaries, auxiliaries, sister concerns and our well wishers who are with us in this journey of success. In the end it’s about the vision, work, the commitment keeping promises and standards and not an award. We will continue to be a leading training institute of PTC and first choice of all technical people in our region.

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सीबीआई जांच में राजनीतिक दखल कोई नई बात नहीं


भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कोयला आबंटन में कथित घोटाले की जांच में सरकारी दखल के मामले पर सीबीआई को आड़े हाथों लिया है। न्यायालय ने स्पष्ट करने को कहा है कि क्या जांच एजेंसी सीबीआई का मैनुअल इसकी इजाजत देता है कि इस तरह के मसौदे कानून मंत्री, जो किसी पार्टी के नेता भी होते हैं, के साथ साझा किए जाएं? बहस फिर तेज हो गई है कि सीबीआई कितनी स्वायत्त संस्था है और उसमे राजनीतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता क्यों हो? सीबीआई के दो पूर्व संयुक्त निदेशकों की बेबाक राय।

एनके सिंह

आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार किया और सेंट किट्स मामले की जांच की। अगर सच कहूँ तो सीबीआई का राजनीतिकरण इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री काल में शुरू हुआ था। मेरी नजर में उनसे पहले के प्रधानमंत्री और सरकारें आम तौर पर जांच एजेंसी के काम-काज में दखल नहीं देती थीं। सरकार के खिलाफ मुकदमा जीतने के बाद एनके सिंह ने किताब भी लिखी।
इंदिरा गाँधी के सत्ता में रहते ही डी सेन नामक व्यक्ति पूरे छह साल तक इस एजेंसी के निदेशक पद पर आसीन रहे। मेरा अपना अनुभव रहा सेंट किट्स मामले की जांच के दौरान जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस और राजीव गांधी का साथ छोड़ा तो उसके तुरंत बाद कैरेबियाई देश सेंट किट्स में एक फर्जी बैंक खाता खोला गया और बेशुमार पैसे जमा कर दिए गए। उसके बाद कहा गया कि वो रकम वीपी सिंह की है और उनके पुत्र के नाम पर जमा की गई है। उस मामले की जांच मेरे नेतृत्व में हुई और उसमे कई बार राजनीतिक दखल की कोशिश हुई।
जांच में हस्तक्षेप का प्रयास किया गया जिसमें आरके धवन, चंद्रास्वामी और सतीश शर्मा इत्यादि लोग शामिल थे। जब मैं नहीं माना तब आनन-फानन में मेरा तबादला कर दिया गया और मुझे सीबीआई से ही बाहर कर दिया गया।
मैं इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में गया और मैंने कहा कि ये राजनीति से प्रेरित तबादला है। नतीजा ये हुआ कि सेंट किट्स मामला 6 महीने में ही खत्म कर दिया गया और अगर ऐसा नहीं होता तो जो लोग इसमें शामिल थे वे आगे चल के पकड़ लिए जाते।
ऐसा ही कुछ बोफोर्स मामले में हुए जब ओतावियो क्वात्रोची को न सिर्फ देश से बाहर जाने दिया गया बल्कि लंदन में सील किया गया उनका बैंक खाता भी खोल दिया गया।

केएस ढिल्लन

मेरे हिसाब से भारत में पुलिस और उसकी जवाबदेही अभी भी उसी राह पर चल रही है जैसी ब्रिटिश राज के दौरान थी। केएस ढिल्लन के अनुसार जगन्नाथ मिश्र ने जांच प्रभावित करने का प्रयास किया था। भारत में ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में आलम यही है कि जांच एजेंसियां सरकारों को रिपोर्ट करती हैं।
भारत जैसे देश में जांच एजेंसियां आखिरकार सरकारों के बहाने राजनीतिक दलों को रिपोर्ट करने लगीं, जिनमें निजी हितों का मामला प्राथमिकता लेने लगा। मिसाल के तौर जब मैं सीबीआई में संयुक्त निदेशक था तब बिहार में बॉबी नाम की एक नर्स का कत्ल हो गया था। जगन्नाथ मिश्र उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री थे और विधान सभा के स्पीकर भी उन्ही की कॉंग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता थे।
दोनों में कत्ल को लेकर एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश जारी थी और एक दूसरे को फंसाने के प्रयास तेज थे। खास बात ये भी थी कि राज्य की पुलिस मुख्यमंत्री का पक्ष ले रही थी और स्पीकर महोदय अकेले पड़ रहे थे।
जब जांच में बात हद से आगे निकल गई तो ये केस मेरे सुपुर्द किया गया। तमाम राजनीतिक हस्तक्षेप को किनारे करते हुए बड़ी मुश्किल से किसी तरह हमारी टीम ने इस केस को सुलझाया।
ये उदाहरण जरूरी इसलिए है क्योंकि सीबीआई या जांच एजेंसियों के कामकाज में न सिर्फ बड़े मामलों में बल्कि छोटे मामलों में भी काफी राजनीतिक हस्तक्षेप के मामले सामने आए हैं।