Wednesday, May 22, 2013

टेंशन में फायरिंग कर बैठती है फोर्स



  • आदिवासी जनजीवन का कोई आइडिया नहीं
  • सरईगुड़ा कांड के बाद लेनी चाहिए थी सीख
  • कोबरा नाम रख लेना सफलता की गारंटी नहीं

बीजापुर। बस्तर के जंगलों में युद्ध जैसे हालात हैं। फोर्स तथा नक्सली दोनों को ही हर आहट दुश्मन की लगती है। लड़ाई जीतने का एक तरीका यह भी है कि पहले वार करो और कम से कम नुकसान पर अधिक से अधिक नतीजे पाओ। एडसामेटा के जंगलों में, और उससे भी पहले सिंगारम या सरईगुड़ा में जो कुछ हुआ, वह इसी का नतीजा था। फोर्स को जैसे ही नक्सली उपस्थिति का आभास हुआ उसने ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर युद्ध का फैसला अपनी ओर करने की कोशिश की। यह और बात है कि वहां पूजापाठ के लिए एकत्र हुए ग्रामीण ही थे और तीन बच्चों समेत आठ लोगों की मौत हो गई।
सुरक्षा बलों से जुड़े सूत्र बताते हैं कि फोर्स भी करे तो क्या करे। नक्सली इस तरह के हथकंडों को अपनाने के लिए बदनाम हैं। वे निरीह ग्रामीणों को धमकाकर जंगलों में एकत्र करते हैं और फिर उनकी मीटिंग लेते हैं। इसलिए जब भी मुठभेड़ होते हैं तो नक्सलियों के अलावा निर्दोष ग्रामीण भी मारे जाते हैं। ऐसा युद्ध क्षेत्र में भी आम होता है। जिले के पुलिस अधीक्षक अग्रवाल बताते हैं कि इसे एक चूक कहें या हालात की मजबूरी, पर यह होता है।

गागड़ा सख्त नाराज

बीजापुर विधायक महेश गागड़ा एडसामेटा में पुलिस की गोलियों से हुई बच्चों सहित आदिवासियों की मौत को केवल चूक बताए जाने से बेहर व्यथित हैं। उनका कहना है कि इससे पहले सरईगुड़ा में भी इसी तरह की वारदात हुई थी। सरकार को नीचे देखना पड़ा था। इसके बावजूद कोई सीख नहीं ली गई। सशस्त्र बलों को यह बताने वाला कोई तो होना ही चाहिए कि जंगल में लगने वाला हर जमावड़ा नक्सलियों का नहीं होता।
श्री गागड़ा ने कहा कि फोर्स को आदिवासियों की पूजा पद्धति, सामाजिक सरोकारों, संस्कारों की कोर्ई जानकारी नहीं है। आदिवासी कई बार केवल पूजा पाठ के लिए जंगल के बीच समूह में एकत्र होते हैं।  पुलिस और सशस्त्र बल उन्हें नक्सली समझ लेते हैं और अंधाधुंध फायरिंग करने लगते हैं। सरईगुड़ा में भी यही गलती हुई थी किन्तु फोर्स ने उससे कोई सबक नहीं लिया। आंध्रप्रदेश में ऐसी गलतियां नहीं होतीं क्योंकि वह फोर्स में स्थानीय युवा होते हैं। यहां भी ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। जनप्रतिनिधियों की भी मदद ली जा सकती है।
हालांकि गागड़ा अभी तक एडसामेटा नहीं पहुंचे हैं, और परिस्थितियों को देखते हुए, उनका पहुंच पाना संभव भी नहीं लगता, लेकिन वह उस सच तक पहुंच गए हैं जिसकी वजह से सरकार को मारे गए ग्रामीणों के परिजनों को लाखों का मुआवजा देना पड़ रहा है।
भाजपा विधायक स्वयं नक्सलियों के निशाने पर हैं। हाल ही में नक्सलियों ने खुद ई-मेल कर पुलिस के आला अधिकारियों तक यह बात पहुंचाई थी। बीते दस दिन में दो बार बाल-बाल बचे हैं। दुपहिया पर संवेदनशील इलाकों का दौरा करने वाले गागड़ा को ग्रामीण सही वक्त पर सही सूचना देकर खतरों से आगाह कर देते हैं।

ग्रेहाउंड की नकल काफी नहीं

महेश मानते हैं कि, आंध्रा के ग्रेहाउंड में स्थानीय निवासी हैं, यहां ंऐसा नहीं है। कोबरा या एसटीएफ नाम सफलता की गारंटी नहीं होती। जरूरी है बल में स्थानीय निवासी हों, जो लोक परंपरा और स्थानीय चीजों को जानें समझें। इसमें स्थानीय जनप्रतिनिधियों की सहभागिता होनी चाहिए। राजधानी के एसी कमरे में बैठकर योजना बनाने वाले प्लानर ना बस्तर को समझते हैं, ना आम बस्तरिहा को जानते हैं।

सलवा जुडूम में भी चूक

गागड़ा मानते हैं कि, सलवा जुडूम में गलतियां हुई। इसमें बगैर सोचे समझे विस्तार और कमान राजनेताओं के हाथ में आना,  जुडूम का अनियंत्रित होना ऐसे मामले थे, जिसका फायदा नक्सलियों को हुआ। अब निशाने पर आदिवासी हैं जो अब हर तरफ से असुरक्षित हो गए हैं।

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