जीरमघाटी में हुआ हमला कोई पहला नक्सली हमला तो नहीं था.... फिर इतनी हाय तौबा क्यों? जंगलों में निरीह बेकसूर आदिवासी लगातार मारे जा रहे हैं। नक्सलियों की धरपकड़ और एनकाउन्टर के लिए लगाई गई फोर्स के जवान शहीद हो रहे हैं। हम शहरों में बैठकर शब्दों से खेल रहे हैं। यहीं आसपास सुरक्षाबलों के 76 कर्मठ, युवा साहसी और स्वस्थ युवाओं के खून की होली खेली जा चुकी है। सिंगारम से लेकर एड़समेटा तक सैकड़ों बेगुनाह अपनी जान गंवा चुके हैं। अब तो हमें समझ लेना चाहिए कि गोलियां लंगोटी छाप आदिवासी और खादी धारी नेता में कोई फर्क नहीं करतीं। जान बड़े आदमी की हो या छोटे आदमी की, एक गोली काफी होती है।
दरअसल यह स्वार्थों की लड़ाई है जो अब बेमेल होने के चरम पर है। एक तरफ वेतनभोगी लड़ाके हैं जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए शासन की नौकरी कर रहे हैं। दूसरी तरफ अपने पैरों पर खड़ी जिन्दा लाशें हैं जिनके पास गंवाने को कुछ नहीं। हाथों में बंदूक लेकर बीहड़ों में भागते फिरना उनका शौक नहीं, उनकी नियती है। सालों पहले जब आदिवासी अंचलों में नक्सली, माओवादी या सशस्त्र प्रतिरोध नहीं था, तब शासन का छोटे से छोटा मुलाजिम वहां बाघ की हैसियत रखता था। उसे खुश रखने के लिए लोग मुर्गियां, बकरे और वनोपज मुफ्त पहुंचाया करते थे। कुछ लोग आदिवासियों की बहन बेटी की इज्जत से खेला करते थे। अव्वल तो शिकायत होती ही नहीं थी। होती भी थी तो कोई सुनता नहीं था।
फिर ये कथित दादा आए...। इन्होंने सरकारी अधिकारियों की ठुकाई की और गांव वालों के भगवान हो गए। कुछ साल मजे में कटे और फिर शासन ने इनका प्रतिरोध या यूं कहें दमन करने की कोशिशें शुरू कर दीं। गांव वाले दो चाकों के बीच पिस गए। कुछ लड़कों को नक्सली समूह की ताकत और बंदूकों के जोर पर उठा ले गए। बाकी बचे युवकों को बाद में सलवा जुडूम के लोग उठा ले गए। घर में बच गए बच्चे, बूढ़े और लड़कियां। ये निहत्थे लोग कभी इसकी तो कभी उसकी गोलियों का शिकार बन गए। इन्हें बताया गया कि इनका अब मरना तय है, इसलिये क्यों न अंतिम लड़ाई लड़ी जाए। और ये सिर पर कफन बांधकर जंगलों में चले गए। इनसे हथियारों की कोई भी लड़ाई जीती ही नहीं जा सकती। ये जिंदा लाशें हैं। इनकी आंखों में तरक्की का कोई सपना नहीं बल्कि सिर्फ अपमान, असहाय आक्रोश और बदले की चिंगारियां हैं।
डाकुओं और आतंकवादियों का भी पुनर्वास होता है। पर इन आदिवासियों के लिए पुनर्वास का कोई अर्थ नहीं। सलवा जुडूम कार्यकर्ता पुलिस के साये से हटा नहीं कि नक्सली उसे मार देते हैं। नक्सलियों के चंगुल से छूटकर कोई आया नहीं कि पुलिस उसकी ऐसी दुर्गत कर देती है कि वह मौत मांगने लगता है। मुक्त जंगलों में, प्रकृति के नियम कानून से बंधे आदिवासियों को बंदी की असहाय मौत मरना मंजूर नहीं। इसलिए उनके लौटना का भी सवाल नहीं पैदा होता।
ऐसा क्यों हुआ? यह एक बड़ा प्रश्न है। ऐसा सिर्फ जंगलों में नहीं हुआ। स्वार्थी इंसान ने हर जगह सिर्फ अपनी अहमियत को तवज्जो दी है। पैसे कमाकर घर से लेकर दफ्तर, अपनी कार से लेकर ट्रेन के वातानुकूलित वातावरण में सफर करने वाला स्वार्थी शायद ही कभी यह सोचता है कि उसे ठंडा रखने के एवज में कम्प्रेशर बाहर की गर्मी में इजाफा कर रहा है। अपने आवास में 8 से 12 इंच का बोरिंग लगाने वाले लोगों को यह एकबार भी नहीं सूझता कि वह बेशकीमती भूजल का दोहन कर रहा है। चूंकि यह पानी उसका है इसलिए वह बेहिचक उसका जैसा चाहे दोहन-उपयोग-दुरुपयोग कर सकता है। खेतों में अनाज उगाने वाले की दिहाड़ी 150 रुपए है और डिग्री की बदौलत स्कूलों-दफ्तरों में अलाली करने वालों की 1500 रुपए। जब बात स्वार्थों की आती है तो डिक्टेटरशिप और लोकतंत्र में कोई फर्क नहीं रह जाता। हम सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय की सोच भी नहीं सकते।
तो क्या नक्सली हमेशा रहेंगे? नहीं! ऐसा हो नहीं सकता। सृष्टि का नियम है कि हर चीज का अंत होगा। इस लिहाज से नक्सलवाद का भी अंत तय है। देश के वन ग्रामों में वैसे भी बहुत कम लोग रहते हैं। जैसा कि पहले ही कहा गया, लगभग सभी युवा बंदूक थाम चुके हैं। अब बच्चे और युवतियां भी नदी पहाड़-गोला बारूद खेल रहे हैं। बचे खुचे बूढ़े मामूली बीमारियों से दम तोड़ देंगे। जंगल खाली हो जाएंगे तो लड़ाई भी बंद हो जाएगी। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
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