Tuesday, June 4, 2013

कमिशन की सेटिंग से बच्चे जमीन पर


  • टीन टप्पर के फर्नीचर कबाड़खाने में
  • सीएसआईडीसी ने कराई करोड़ों की बर्बादी

छत्तीसगढ़ ने पिछले 8-10 सालों में तेजी से तरक्की की है। इस अवधि में सेटिंग मास्टरों ने खूब कमाई की है और लाल हो गए हैं। बात चाहे विवादित जमीनों की हो या फिर स्कूलों की सप्लाई की, हर जगह सेटिंग से वारे न्यारे हुए हैं। ताजा उदाहरण स्कूल फर्नीचरों का है।
जून का महीना शुरू हो गया है और जल्द ही स्कूल खुलने वाले हैं। अधिकांश स्कूलों में फर्नीचर के नाम पर टीन टप्पर का कबाड़ सजा हुआ है। हाईस्कूलों का भी हाल बुरा है। पिछले साल जुलाई अगस्त में स्कूल के प्रधानपाठकों से फर्नीचर की रिक्वायरमेंट मंगवाई गई थी। डीईओ कार्यालय के जरिए आंकड़े जुटाए गए थे। पर साल बीत गया फर्नीचर नहीं पहुंचे। सत्र आरंभ में कुछ फर्नीचर पहुंचा था जो जल्द ही कबाड़ में तब्दील हो गया।
फर्नीचर व्यवसाय से जुड़ लोग बताते हैं कि स्कूलों को फर्नीचर की आपूर्ति सीएसआईडीसी के जरिए होती है। जिनका वहां पंजीयन नहीं है उन्हें काम नहीं मिलता। वहां केवल सेटिंगबाजों की चलती है। सेटिंगबाज वहां से काम निकाल लाते हैं। इसमें बड़े पैमाने पर सेटिंग होती है। सीएसआईडीसी के अफसरों की मुट्ठी गर्म करने के बाद फर्नीचर बनाए जाते हैं। फिर हेडमास्टर से लेकर डीईओ तक को खुश करना पड़ता है। लगभग आधी रकम इसी में खर्च हो जाती है। थोड़ा मुनाफा अपने लिये रखते हुए बची खुची रकम से फर्नीचर बनाए जाते हैं।
लिहाजा ये फर्नीचर 18 के बजाय 22-24 गेज की शीटों से बनते हैं। इसपर वेल्डिंग भी टिकती नहीं। जरा सा धक्का लगा कि टांगे खुल जाती हैं। बैलेंस बिगड़ने के बाद फर्नीचर को स्टील स्क्वायर पाइपों में बंटते देर नहीं लगती।

स्कूलों की मुसीबत

एक बार फर्नीचर आ गया तो वहां टाट पट्टी का कोई काम नहीं रह जाता। दो चार महीने में आधे से अधिक फर्नीचर कबाड़ में तब्दील हो जाता है। समझ में नहीं आता कि आधे बच्चों को कुर्सी टेबल और आधे को दरी पर कैसे बैठाया जाए। लिहाजा पूरे फर्नीचर को बाहर कर दरी बिछाई जाती है। दरी का भी जुगाड़ बैठाना पड़ता है। स्थानीय नेताओं, समाजसेवियों और दानदाताओं से ही दरी का जुगाड़ लगाया जाता है। कुछ छात्राएं अपने साथ दरी घर से लेकर आती हैं। प्राचार्य के कमरे में भी विजिटर्स के लिए प्लास्टिक की मोल्डेड कुर्सियों का जुगाड़ करना पड़ता है।

बच्चों की मुसीबत

जब तक फर्नीचर पूरी तरह टूट नहीं जाते, उनका उपयोग किया जाता है। फर्नीचर टूटते हैं तो पहले   तो बच्चों को ही फर्नीचर तोड़ने के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है। टूटे फूटे फर्नीचर में बैठने के कारण कपड़े तो फटते ही हैं कई बार जांघों, कमर, कोहनी पर खरोंचें भी लग जाती हैं। इन मुसीबतों से तो अच्छा है कि वे जमीन पर ही बैठ कर पढ़ाई करें। भले ही इससे लिखने की रफ्तार कुछ कम रहती है किन्तु इसकी कमोबेश उन्हें आदत पड़ चुकी होती है। कुछ कापी फर्श पर रखकर झुककर लिख पढ़ लेते हैं तो कुछ लोग कापियों को गोद में रखकर उसपर लिखना सीख गए हैं।

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